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माँ महा काली जय काली चालीसा

॥ दोहा ॥
जय जय सीताराम के मध्यवासिनी अंब,
देहु दर्श जगदंब अब करहु न मातु विलंब ॥
जय तारा जय कालिका जय दश विद्या वृंद,
काली चालीसा रचत एक सिद्धि कवि हिंद ॥
प्रातः काल उठ जो पढ़े दुपहरिया या शाम,
दुःख दरिद्रता दूर हों सिद्धि होय सब काम ॥
॥ चौपाई ॥
जय काली कंकाल मालिनी,
जय मंगला महाकपालिनी ॥

रक्तबीज वधकारिणी माता,
सदा भक्तन की सुखदाता ॥

शिरो मालिका भूषित अंगे,
जय काली जय मद्य मतंगे ॥

हर हृदयारविंद सुविलासिनी,
जय जगदंबा सकल दुःख नाशिनी ॥ 4 ॥

ह्रीं काली श्रीं महाकाली,
क्रीं कल्याणी दक्षिणाकाली ॥

जय कलावती जय विद्यावती,
जय तारासुंदरी महामति ॥

देहु सुबुद्धि हरहु सब संकट,
होहु भक्त के आगे प्रगट ॥

जय ओम कारे जय हुंकारे,
महाशक्ति जय अपारंपरे ॥ 8 ॥

कमला कलियुग दर्प विनाशिनी,
सदा भक्तजन की भयनाशिनी ॥

अब जगदंब न देर लगावहु,
दुःख दरिद्रता मोर हटवहु ॥

जयति कराल कालिका माता,
कालानल समान द्युतिगाता ॥

जयशंकरी सुरेशि सनातनी,
कोटि सिद्धि कवि मातु पुरातनी ॥ 12 ॥

कपर्दिनी कलि कल्प विमोचनी,
जय विकसित नव नलिन विलोचनी ॥

आनंद कारणी आनंद निधाना,
देहुमातु मोहि निर्मल ज्ञान ॥

करुणामृत सागरा कृपामयी,
होहु दुष्ट जन पर अब निर्दयी ॥

सकल जीव तोहि परम प्यारा,
सकल विश्व तोरे अधारा ॥ 16 ॥

प्रलय काल में नर्तन कारिणी,
जग जननी सब जग की पालिनी ॥

महोदरी महेश्वरी माया,
हिमगिरि सुता विश्व की छाया ॥

स्वच्छंद रद मारद धुनि माही,
गरजत तुम्हीं और कौ नहीं ॥

स्फुरति मणिगणाकर प्रताने,
तारागण तू व्योम विताने ॥ 20 ॥

श्रीधरे संतन हितकारिणी,
अग्निपाणि अति दुष्ट विदारिणी ॥

धूम्र विलोचनी प्राण विमोचिनी,
शुंभ निशुंभ मथनी वर लोचनी ॥

सहस भुजी सरोरुह मालिनी,
चामुंडे मरघट की वासिनी ॥

खप्पर मध्य सुशोणित साजी,
मारेहु मन महिषासुर पाजी ॥ 24 ॥

अंब अंबिका चंड चंडिका,
सब एके तुम आदि कालिका ॥

अजा एकरूपा बहुरूपा,
अकथ चरित्र शक्ति अनूपा ॥

कलकत्ता के दक्षिण द्वारे,
मूरति तोरी महेषि अपारे ॥

कादंबरी पानरत श्यामा,
जय मंतगी काम के धामा ॥ 28 ॥

कमलासन वासिनी कमलायनी,
जय श्यामा जय जय श्यामायनी ॥

मातंगी जय जयति प्रकृति हे,
जयति भक्ति उर कुमति सुमति हे ॥

कोटि ब्रह्म शिव विष्णु कामदा,
जयति अहिंसा धर्म जनमदा ॥

जलथल नभ मंडल में व्यापिनी,
सौदामिनी मध्य आलापिनी ॥ 32 ॥

झणनन तच्छु मरीरि नादिनी,
जय सरस्वती वीणा वादिनी ॥

ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे,
कलित कंठ शोभित नरमुंडा ॥

जय ब्रह्मांड सिद्धि कवि माता,
कामाख्या और काली माता ॥

हिंगलाज विंध्याचल वासिनी,
अट्टहासिनि अरु अघन नाशिनी ॥ 36 ॥

कितनी स्तुति करूं अखंडे,
तू ब्रह्मांड शक्तिजित चंडे ॥

करहु कृपा सब पे जगदंबा,
रहहिं निशंक तोर अवलंबा ॥

चतुर्भुजी काली तुम श्यामा,
रूप तुम्हार महा अभिरामा ॥

खड्ग और खप्पर कर सोहत,
सुर नर मुनि सबको मन मोहत ॥ 40 ॥

तुम्हारी कृपा पावे जो कोई,
रोग शोक नहीं तकाहन होई ॥

जो यह पाठ करई चालीसा,
तापर कृपा करहिं गौरीशा ॥

॥ दोहा ॥
जय कपालिनी जय शिवा,
जय जय जय जगदंब,
सदा भक्तजन केरी दुःख हरहु,
मातु अविलंब ॥

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