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राहु कवचम्

अस्य श्रीराहुकवचस्तोत्र महामन्त्रस्य चन्द्रऋषि: |
अनुष्टुप्छन्द: |
राहुर्देवता |
नीं बीजम् |
ह्रीं शक्ति: |
कां कीलकम् |
मम राहुग्रहप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोग: |

ध्यानम्

राहुं चतुर्भुजं चम्रशूलखड्गवराङ्गिनं
कृष्णाम्बरधरणं नीलं कृष्णगन्धानुलेपनम् |
गोमेदिकविभूषं च विचित्रमकुटं फणिम्
कृष्णसिंह रथारूढं मेरुं चैवाप्रदक्षिणम् ||

प्रणमामि सदा राहुं सर्पाकारं किरीटिनम् |
सैंहिकेयं करालास्यं भक्तानामभयप्रदम् || 1 ||

कवचम्

नीलाम्बर: शिर: पातु ललाटं लोकवन्दित: |
चक्षुषी पातु मे राहु: श्रोत्रे मे:अर्धशरीरवान् || 2 ||

नासिकां मे करालास्य: शूलपाणिर्मुखं मम |
जिव्हां मे सैंहिकासूनु: कण्ठं मे कष्टनाशन: || 3 ||

भुजङ्गेशो भुजौ पातु नीलमाल्य: करौ मम |
पातु वक्षौ तमोमूर्ति: पातु नाभिं विधुन्तुद: || 4 ||

कटिं मे विकट: पातु ऊरू मे:असुरपूजित: |
स्वर्भानुरजानुनि पातु जङ्घे मे पातु च:अव्यय: || 5 ||

गुल्फौ ग्रहाधिप: पातु नीलचन्दनभूषित: |
पादौ नीलाम्बर: पातु सर्वाङ्गं सैंहिकासुत: || 6 ||

राहोरिदं कवचमईप्सितवस्तुदं यो
भक्त्या पठत्यनुदिनं नियतश्चुच्छुःसन |
प्राप्नोति कीर्तिमतुलां च श्रीं समृद्धि-
मारोग्यमायुर्विजयावसित प्रसादात || 7 ||

इति पद्मे महापुराणे राहु कवच: |

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