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त्रिस्सूर पूरम उत्सव २०२६

तारीख़: २७ अप्रैल २०२६

पूरी तारीख

२१ अप्रैल २०२६ सुबह ६:०० बजे २८ अप्रैल २०२६ मध्यरात्रि

मुहूर्त समय भारत में

  • कोड़ीएत्तम (पताका फहराना)

    त्रिस्सूर पूरम के आधिकारिक शुभारंभ के लिए पताका फहराने का समारोह।

    २१ अप्रैल २०२६ सुबह ६:०० बजे २१ अप्रैल २०२६ सुबह ७:०० बजे

  • इलांजितारा मेलम

    उत्सव समारोहों को ऊर्जावान बनाने वाली पारंपरिक तालवाद्य मंडली।

    २७ अप्रैल २०२६ दोपहर २:०० बजे २७ अप्रैल २०२६ शाम ५:०० बजे

  • कुडमत्तम

    हाथियों पर रंगीन छतरियों को ताल के साथ तेज़ी से बदलने का समारोह।

    २७ अप्रैल २०२६ शाम ५:३० बजे २७ अप्रैल २०२६ शाम ७:०० बजे

  • वेदिक्केट्टू आतिशबाजी

    त्रिस्सूर पूरम के चरमोत्कर्ष को दर्शाने वाली भव्य आतिशबाजी।

    २७ अप्रैल २०२६ शाम ७:०० बजे २८ अप्रैल २०२६ सुबह ६:०० बजे

परिचय

त्रिस्सूर पूरम केरल में आयोजित एक भव्य वार्षिक मंदिर उत्सव है, जिसमें आसपास के मंदिरों के देवताओं का वडक्कुनाथन मंदिर, त्रिस्सूर में उत्सव मनाया जाता है। हाथी जुलूस, तालवाद्य और रंगीन आतिशबाजी इसके प्रमुख आकर्षण हैं और यह दक्षिण भारत का सांस्कृतिक शिखर है।

अन्य नाम

त्रिस्सूर मंदिर उत्सव, पूरम उत्सव केरल

पूजा विधि

  • मंदिर प्रांगण में कोड़ीएत्तम पताका फहराने के अनुष्ठान से शुरुआत करें।
  • हाथियों को पारंपरिक सजावट और आभूषणों से सजाएं।
  • इलांजितारा मेलम और तालवाद्य प्रदर्शनों का आयोजन और भागीदारी करें।
  • ताल के साथ हाथियों पर छतरियों का कुदमत्तम समारोह करें।
  • मंदिर के अंदर शाम की पूजा और आर्चना करें।
  • उत्सव की शामों में भव्य आतिशबाजी प्रदर्शन देखें।

अनुष्ठान

  • कोड़ीएत्तम या पताका फहराना उत्सव की शुरुआत को दर्शाता है।
  • नेट्टिपट्टम और आभूषणों से सजे हाथी भव्य जुलूसों में भाग लेते हैं।
  • इलांजितारा मेलम, एक पारंपरिक तालवाद्य मंडली, उत्सवों को ऊर्जावान बनाती है।
  • कुडमत्तम में हाथियों के ऊपर रंगीन छतरियों का तेज़ बदलाव होता है।
  • रात्रि में आतिशबाजी उत्सव के प्रमुख आकर्षणों में से एक है।
  • भक्त वडक्कुनाथन मंदिर में पूजा और अनुष्ठानों में भाग लेते हैं।

क्षेत्रीय विशेषताएँ

  • त्रिस्सूर पूरम को केरल के सभी पूरम का जननी माना जाता है।
  • यह वडक्कुनाथन मंदिर के आसपास के दस प्रमुख मंदिरों को भव्य उत्सवों के लिए जोड़ता है।
  • यह अपनी अनूठी पारंपरिक तालवाद्य, हाथी जुलूस और सामुदायिक सहभागिता के लिए प्रसिद्ध है।

इतिहास

यह उत्सव 18वीं सदी के अंत में कोच्चि के महाराजा शक्थन थंपुरन द्वारा आयोजित किया गया था, जो कई मंदिरों के लिए एक एकीकृत उत्सव था। यह भारत के सबसे बड़े और जीवंत मंदिर उत्सवों में से एक बन गया है।

अतिरिक्त जानकारी

  • यह उत्सव भारत और दुनिया भर से लाखों आगंतुकों को आकर्षित करता है।
  • यह केरल की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और मंदिर अनुष्ठानों को दर्शाता है।
  • त्रिस्सूर पूरम समन्वय समिति द्वारा सुचारु आयोजन सुनिश्चित किया जाता है।
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