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कैलादेवी चालीसा

॥ दोहा ॥
जय जय कैलामात हे
तुम्हे नमौ मथ ॥
शरण पड़ूं में चरण में
जोड़ूं दोनों हाथ ॥

आप जानी जान हो
मैं माता अंजन ॥
क्षमा भूल मेरी करो
करूं तेरा गुणगान ॥

॥ चौपाई ॥
जय जय जय कैलामहारानी ।
नमो नमो जगदंब भवानी ॥

सब जग की हो भाग्य विधाता ।
आदी शक्ति तू सबकी माता ॥

दोनों बहिना सबसे न्यारी ।
महिमा अपरम्पर तुम्हारी ॥

शोभा सदन सकल गुणखानी ।
वैद पुराण मनहि बखानी ॥ ४ ॥

जय हो मात करौली वाली ।
शत प्रणाम कलीसल वाली ॥

ज्वालाजी में ज्योति तुम्हारी ।
हिंगलाज में तू महातारी ॥

तू ही नई सैमरी वाली ।
तू चमुंडा तू कंकाली ॥

नगर कोट में तू ही विराजे ।
विंध्याचल में तू ही राजाई ॥ ८ ॥

धौलागढ़ बेलौं तू माता ।
वैष्णोदेवी जग विख्यात ॥

नव दुर्गा तू मात भवानी ।
चमुण्डा मानस कालयानी ॥

जय जय सुवे चोले वाली ।
जय काली कलकत्ते वाली ॥

तू ही लक्ष्मी तू ही ब्राह्मणी ।
पार्वती तू ही इन्द्राणी ॥ १२ ॥

सरस्वती तू विद्या दाता ।
तू ही है संतोषी माता ॥

अन्नपूर्णा तू जगपालक ।
माता पिता तू ही हम बालक ॥

तू राधा तू सावित्री ।
तारा मातंग्दिंग गायत्री ॥

तू ही आदि सुंदरि अंबा ।
माता चर्चिका हे जगदंबा ॥ १६ ॥

एक हाथ में खप्पर राजाई ।
दूसरे हाथ त्रिशूल विराजाई ॥

कलीसिल पाई दानव मारे ।
राजा नल के कार्य सारे ॥

शुम्भ निशुम्भ नाशवानी हरि ।
महिषासुर का मरणवाणी ॥

रक्तबीज रण बिच पछारो ।
शंखासुर तैने संहारो ॥ २० ॥

उंचे नीचे पर्वत वारी ।
करती माता सिंह सवारी ॥

ध्वजा तेरी ऊपर फहरावे ।
तीन लोक में यश फैलावे ॥

अष्ट प्रहर मान नउबत बजाई ।
चंडी के चौतरे विराजाई ॥

लंगूर घाटू चलाई भवन में ।
माता राज तेराऊ त्रिभुवन में ॥ २४ ॥

घनन घनन घन घंटा बजात ।
ब्रह्मा विष्णु देव सब ध्यानत ॥

अगणित दीप जले मंदिर में ।
ज्योति जले तेरी घर-घर में ॥

चौसठ योगिन आंगन नाचत ।
बामन भैरों स्तुति गावत ॥

देव दानव गंधर्व वा किन्नर ।
भूत पिशाच नाग नारी नर ॥ २८ ॥

सब मिल माता तoye मनावे ।
रात दिन तेरे गुण गावे ॥

जो तेरा बोले जयकारा ।
होय माता उसका निस्तारा ॥

मना मना यूति आकार घर साई ।
जात लगा जो तोंकु परसाई ॥

ध्वजा नारियल भेंट चढ़ावे ।
गुंगर लाऊं सो ज्योति जलावे ॥ ३२ ॥

हलुआ पूरी भोग लगावे ।
रोटी मेहंदी फूल चढ़ावे ॥

जो लंगूरीया गोद खिलावे ।
धन बल विद्या बुद्धि पावे ॥

जो मान को जागरण करावे ।
चंडी को सिर छत्र धरावे ॥

जीवन भर सारे सुख पावे ।
यश गौरव दुनिया में छवावे ॥ ३६ ॥

जो भभूत मस्तक परि लगावे ।
भूत-प्रेत ना वाय सतावे ॥

जो कैलादेवी चालीसा पढ़ता ।
नित्य नियम से इसे स्मरण करता ॥

मन वांछित वह फल को पाता ।
दुख दरिद्र नष्ट हो जाता ॥

गोविंद शिशु है शरण तुम्हारी ।
रक्षा कर कैलादेवी महातारी ॥ ४० ॥

॥ दोहा ॥
संवत तत्व गुण नभ भूज सुंदर रविवर ।
पौष सुदी दवज शुभ पूर्ण भयो यह कार्य ॥
॥ इति कैलादेवी चालीसा समाप्त ॥

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