धर्मराज की आरती - ॐ जय धर्म धुरंधर
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ॐ जय जय धर्म धुरंधर,
जय लोकत्रता ।
धर्मराज प्रभु तुम ही,
हो हरिहर धाता ॥
जय देव दंड पाणिधर यम तुम,
पापी जन कारण ।
सुकृति हेतु हो पार तुम,
वैतरणी तारण ॥
न्याय विभाग अध्यक्ष हो,
नीयत स्वामी ।
पाप पुण्य के ज्ञाता,
तुम अंतर्यामी
दिव्य दृष्टि से सबके,
पाप पुण्य लखते ।
चित्रगुप्त द्वारा तुम,
लेखा सब रखते ॥
छात्र पात्र वस्त्रान्न क्षिति,
शय्याबानी ।
तब कृपया, पाते हैं,
सम्पत्ति मनमानी ॥
द्विज, कन्या, तुलसी,
का करवाते परिणय ।
वंशवृद्धि तुम उनकी,
करते निःसंशय ॥
दानोद्यापन-यजन,
तुष्ट दयासिंधु ।
मृत्यु अनंतर तुम ही,
हो केवल बंधु ॥
धर्मराज प्रभु,
अब तुम दया हृदय धारो ।
जगत सिंधु से स्वामिन,
सेवक को तारो ॥
धर्मराज जी की आरती,
जो कोई नर गावे ।
धरनी पर सुख पाके,
मनवांछित फल पावे ॥
धर्मराज की आरती - ॐ जय धर्म धुरंधर के बारे में
धर्मराज की यह आरती उनके धर्म, न्याय और सत्य के प्रति अडिग आचरण का गुणगान करती है। धर्मराज को यमराज और न्यायाधीश के रूप में भी पूजा जाता है, जिनके अधीन पाप-पुण्य का लेखा-जोखा होता है। यह आरती उनके उस स्वरूप की महिमा करती है जो हर जीव को उसके कर्मों के अनुसार फल प्रदान करता है, तथा धर्म के पालन का महत्त्व प्रतिपादित करती है।
अर्थ
इस आरती का भाव यह है कि धर्मराज संसार के न्यायाधीश हैं और प्रत्येक जीव के कर्मों के अनुसार उन्हें न्याय प्रदान करते हैं। यह आरती मनुष्य को धर्म, सत्य और सदाचार का पालन करने की प्रेरणा देती है।
लाभ
- धार्मिक और नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है
- पाप कर्मों से दूर रहने की बुद्धि प्रदान होती है
- आत्मिक शांति और सदाचार की वृद्धि
- परिवार और समाज में न्यायप्रियता का विकास
महत्व
धर्मराज की आरती विशेष रूप से पितृ पक्ष, मृत्यु-संस्कार और धर्म से जुड़े अवसरों पर गाने का महत्व है। यह भगवान के न्याय स्वरूप की स्मृति दिलाती है और मनुष्य को धर्माचरण की ओर अग्रसर करती है।