धर्मराज की आरती - ॐ जय धर्म धुरंधर
ॐ जय जय धर्म धुरंधर,
जय लोकत्रता ।
धर्मराज प्रभु तुम ही,
हो हरिहर धाता ॥
जय देव दंड पाणिधर यम तुम,
पापी जन कारण ।
सुकृति हेतु हो पार तुम,
वैतरणी तारण ॥
न्याय विभाग अध्यक्ष हो,
नीयत स्वामी ।
पाप पुण्य के ज्ञाता,
तुम अंतर्यामी
दिव्य दृष्टि से सबके,
पाप पुण्य लखते ।
चित्रगुप्त द्वारा तुम,
लेखा सब रखते ॥
छात्र पात्र वस्त्रान्न क्षिति,
शय्याबानी ।
तब कृपया, पाते हैं,
सम्पत्ति मनमानी ॥
द्विज, कन्या, तुलसी,
का करवाते परिणय ।
वंशवृद्धि तुम उनकी,
करते निःसंशय ॥
दानोद्यापन-यजन,
तुष्ट दयासिंधु ।
मृत्यु अनंतर तुम ही,
हो केवल बंधु ॥
धर्मराज प्रभु,
अब तुम दया हृदय धारो ।
जगत सिंधु से स्वामिन,
सेवक को तारो ॥
धर्मराज जी की आरती,
जो कोई नर गावे ।
धरनी पर सुख पाके,
मनवांछित फल पावे ॥
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